Ilahabad High Court indianewstv.in
संविधान हर नागरिक को समानता का अधिकार देता है और जातिगत भेदभाव को समाप्त करने की बात करता है।
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उत्तर प्रदेश पुलिस के डीजीपी से एक अहम सवाल पूछा है—एफआईआर में जाति का उल्लेख क्यों? एफआईआर में आरोपियों की जाति का उल्लेख क्यों किया जाता है? कोर्ट ने इस प्रथा पर गंभीर चिंता जताते हुए इसे समाज में भेदभाव और पूर्वाग्रह को बढ़ावा देने वाला बताया है। जस्टिस विनोद दिवाकर की पीठ ने यूपी पुलिस को निर्देश दिया है कि इस मुद्दे पर स्पष्टीकरण देते हुए व्यक्तिगत हलफनामा दाखिल किया जाए।
संविधान में समानता का अधिकार
संविधान हर नागरिक को समानता का अधिकार देता है और जातिगत भेदभाव को समाप्त करने की बात करता है। कोर्ट ने जोर देकर कहा कि एफआईआर जैसी कानूनी प्रक्रिया में जाति का उल्लेख एक प्रकार से संस्थागत भेदभाव को प्रोत्साहित करता है। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने भी जाति और धर्म का उल्लेख करने पर रोक लगाई थी, लेकिन इसके बावजूद यूपी पुलिस द्वारा इस परंपरा को बनाए रखने पर सवाल उठाया गया है।
मामला 2013 में दर्ज एक एफआईआर से जुड़ा
यह मामला 2013 में इटावा पुलिस द्वारा दर्ज की गई एक एफआईआर से जुड़ा है। पुलिस ने शराब तस्करी के आरोप में कुछ लोगों को गिरफ्तार किया था। जांच में पता चला कि आरोपी हरियाणा से शराब लाकर बिहार में ऊंचे दामों पर बेचते थे और तस्करी के लिए वाहनों की नंबर प्लेट बदली जाती थी। लेकिन जब अदालत ने एफआईआर की जांच की, तो उसमें आरोपियों की जाति का उल्लेख पाया गया। अदालत ने इसे अनुचित मानते हुए सवाल उठाया कि क्या जाति का जिक्र किसी भी तरह से जांच प्रक्रिया के लिए आवश्यक है।
एफआईआर : में जाति जाति का उल्लेख क्यों अनुचित है?
हाई कोर्ट ने कहा कि एफआईआर में जाति का जिक्र करने से समाज में असमानता और पूर्वाग्रह को बढ़ावा मिलता है। कानून सबके लिए समान है, और अपराधी की पहचान उसकी जाति से नहीं बल्कि उसके अपराध से की जानी चाहिए। यदि इस प्रकार की प्रवृत्ति को जारी रखा गया, तो यह कानून व्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है।
डीजीपी को हलफनामा दाखिल करने का निर्देश
हाई कोर्ट ने यूपी पुलिस के डीजीपी को आदेश दिया है कि वह इस मुद्दे पर व्यक्तिगत हलफनामा दाखिल करें और स्पष्ट करें कि एफआईआर में जाति का उल्लेख क्यों किया जाता है। कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया कि भविष्य में इस तरह की प्रथाओं को रोका जाए ताकि कानूनी प्रक्रिया निष्पक्ष बनी रहे।
अगली सुनवाई 12 मार्च को
इस मामले की अगली सुनवाई 12 मार्च को होगी, जिसमें डीजीपी को हलफनामा दाखिल कर अपना जवाब देना होगा। कोर्ट ने साफ कर दिया है कि जाति का उल्लेख अपराध से संबंधित नहीं है और इसे किसी भी कानूनी दस्तावेज में शामिल नहीं किया जाना चाहिए। यदि इस मुद्दे पर संतोषजनक उत्तर नहीं दिया जाता, तो पुलिस विभाग के खिलाफ कड़े निर्देश जारी किए जा सकते हैं।
निष्कर्ष
हाई कोर्ट का यह कदम समाज में समानता की ओर एक महत्वपूर्ण कदम है। जाति का उल्लेख एफआईआर में क्यों किया जाता है, इस पर गंभीर मंथन की जरूरत है। यह मामला यह भी दर्शाता है कि कैसे जाति-आधारित सोच अब भी सरकारी संस्थानों में मौजूद है। अदालत का फैसला कानूनी प्रक्रिया में निष्पक्षता और पारदर्शिता लाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास है।
