रिश्तों में कांटा बन गया है तिब्बत से जुड़ा मुद्दा',
तिब्बत पर बयानबाज़ी से पहले ही गर्माया माहौल, भारत-चीन संबंधों में एक और तनाव की लकीर खिंची; जयशंकर की बीजिंग यात्रा से पहले चीन की तीखी टिप्पणी
भारत और चीन के बीच पहले से ही तनावपूर्ण चल रहे संबंधों में तिब्बत का मुद्दा एक बार फिर से विवाद की जड़ बनता दिख रहा है। विदेश मंत्री एस. जयशंकर की संभावित चीन यात्रा से पहले बीजिंग की ओर से जो बयान सामने आया है, उससे संकेत मिलते हैं कि दोनों देशों के रिश्तों में तल्खी और बढ़ सकती है।
चीन का आक्रामक रुख
चीन के विदेश मंत्रालय ने हाल ही में एक बयान में तिब्बत को लेकर भारत के कथित ‘राजनीतिक हस्तक्षेप’ पर कड़ी आपत्ति जताई है। चीनी प्रवक्ता ने कहा कि “तिब्बत चीन का आंतरिक मामला है और इसमें किसी तीसरे पक्ष को बोलने या हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है। भारत को तिब्बत कार्ड खेलना बंद करना चाहिए, यह दोनों देशों के रिश्तों के लिए हानिकारक है।”
भारत की भूमिका पर सवाल
चीन की आपत्ति दरअसल हाल ही में भारत में आयोजित हुए तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा के सार्वजनिक कार्यक्रमों में भारतीय नेताओं की मौजूदगी को लेकर है। साथ ही, चीन ने दलाई लामा के उत्तराधिकारी को लेकर भी भारत के “अलिखित समर्थन” पर नाराजगी जताई है। बीजिंग मानता है कि भारत तिब्बती आंदोलन को ‘राजनीतिक हथियार’ की तरह इस्तेमाल कर रहा है, जबकि भारत का पक्ष हमेशा यह रहा है कि वह दलाई लामा को “धार्मिक गुरु” मानता है और उन्हें मानवाधिकारों की दृष्टि से शरण दी गई है।
जयशंकर की यात्रा से पहले तनाव
इस मुद्दे पर ऐसे समय में बयान आया है जब भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर की चीन यात्रा की अटकलें तेज़ हैं। यह यात्रा दोनों देशों के बीच जारी सीमा विवाद, व्यापार, ब्रिक्स सहयोग, और वैश्विक भू-राजनीतिक मुद्दों पर वार्ता का मंच बन सकती थी, लेकिन अब तिब्बत के कारण इसका माहौल पहले से ही गरमा गया है।
विशेषज्ञों का मानना है कि तिब्बत के साथ-साथ अरुणाचल प्रदेश और एलएसी पर चीनी गतिविधियों को लेकर भारत की चिंता भी चर्चा का अहम मुद्दा होगी। लेकिन चीन तिब्बत को “लाल रेखा” मानता है और इसमें भारत की किसी भी भूमिका को सीधा हस्तक्षेप समझता है।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
भारत ने 1959 में तिब्बत से भागे दलाई लामा को शरण दी थी, जो तब से हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में रहते हैं। यह मुद्दा तब से दोनों देशों के बीच एक स्थायी असहमति का कारण बना हुआ है। 1962 के भारत-चीन युद्ध की एक बड़ी पृष्ठभूमि भी तिब्बत रहा था, जब चीन ने तिब्बती क्षेत्र को पूरी तरह अपने नियंत्रण में लेने की कोशिश की।
वर्तमान परिस्थिति और आगे की राह
जयशंकर की यात्रा यदि होती है, तो इसमें तिब्बत को लेकर सीधे संवाद की संभावना कम है, लेकिन यह विषय वार्ता की पृष्ठभूमि में ज़रूर छाया रहेगा। भारत इस समय अपने वैश्विक संबंधों को संतुलित करने की रणनीति अपना रहा है, खासकर अमेरिका, रूस और दक्षिण एशियाई देशों के साथ। ऐसे में चीन से तनाव को सीमित रखना भारत की कूटनीतिक प्राथमिकता हो सकती है।
वहीं चीन भी घरेलू और वैश्विक चुनौतियों के चलते भारत के साथ खुले टकराव से बचना चाहेगा, लेकिन तिब्बत को लेकर उसकी संवेदनशीलता को नज़रअंदाज़ करना असंभव है।
